
आपको मैं अपनी कहानी अपनी पूरी पहचान के साथ सुनाना चाहता हूं. मगर, क्या करूं, समाज जेल से बाहर आए लोगों के लिए सहज नहीं है. आज भी पहचान के साथ पूर्व कैदियों का मुख्यधारा में आना बहुत मुश्किल है इसलिए मैं आपको अपनी कहानी अपनी पहचान के बगैर बता रहा हूं. इसके पीछे मेरा मकसद बस इतना भर है कि मैं ये बता सकूं कि तमाम कठिनाइयां, घुटन भरी जिंदगी, तकलीफों और अपराधबोध के बावजूद आप भी बेहतर बन सकते हैं. मैंने दस साल तक जेल में रहकर पढ़ाई की, इंजीनियरिंग की तैयारी की, कई डिप्लोमा कोर्स किए. आज मैं प्रोडक्शन इंजीनियर हूं.

मैं एक कैदी रहा हूं. पूरे दस साल का सजायाफ्ता कैदी. मेरी कैद अब पूरी हो गई है. लेकिन आज भी मैं अपने अतीत का कैदी हूं. मुझे हर दिन उगता सूरज जेल की ऊंची दीवारों की याद दिला देता है. हर ढलती शाम कल्पनाओं में ही सही, मैं एक बार अपनी बैरक की जमीन पर पड़े बिस्तर पर हाथ जरूर फेर आता हूं. मेरा अतीत मुझे वर्तमान में मिली सभी उपलब्धिपयों को बहुत बड़ा महसूस कराता है.
मेरी कहानी शुरू होती है हापुड़ जिले के एक छोटे से गांव से. साल था 2009, मैं 12वीं का छात्र था. पढ़ने में एवरेज था लेकिन पढ़ाई मेहनत से करता था. मेरा सपना 12वीं करके कंपटीशन निकालना और आईआईटी से इंजीनियरिंग करना था. तीन भाइयों एक बहन, माता-पिता मिलाकर छह लोगों का मेरा हंसता-खेलता परिवार था. अच्छे दोस्त थे. साधारण-सी जिंदगी थी.
देखा तो सामने पुलिस
उसी दौरान मैं गांव की एक लड़की से बहुत आकर्षित था. मैं इस पूरे मामले को अब दोबारा सोचना भी नहीं चाहता. बस इतना कहूंगा कि उसी लड़की की तरफ से दुष्कर्म की धाराओं में रिपोर्ट लिखाई दी गई थी. पर, वो दिन मुझे ठीक तरह से याद है. बोर्ड एग्जाम को दो से तीन महीने बचे थे. मैं बस खाना खाकर पढ़ने की सोच रहा था. तभी अचानक घर के बाहर एक गाड़ी रुकने की आवाज सुनाई दी. किसी ने हमारे ही घर का दरवाजा खटखटाया था. देखा तो सामने पुलिस!

मैं एकदम सुन्न पड़ गया था
पुलिस और मेरे घर? मुझे अजीब सा अहसास हुआ. सभी सहम गए थे, इससे पहले कभी हमारे दरवाजे पर पुलिस नहीं आई थी. गांव में किसी के घर पुलिस का आना उसकी इज्जत जाने के बराबर होता है. जब पुलिस ने मेरा नाम लिया और कहा कि अरेस्ट करने आए हैं, मैं तो एकदम सुन्न पड़ गया, काटो तो खून नहीं. घर में सभी के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. तीन भाइयों में सबसे छोटा मैं बहुत लाड़ से पला था, मां की आंखों से आंसू बह रहे थे. तभी, दो सिपाही आगे बढ़े, एक ने मेरे हाथों में हथकड़ी पहनाई, दूसरे ने पकड़कर आगे चलने को कहा.
रूह तक कांप रही थी
मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये सच में मेरे साथ हो रहा है या कोई सपना है. आसपास के घरों की औरतें अपनी चौखट से मुझे घूर रही थीं. हर कोई जैसे मुझे ही देख रहा था. मैंने खुद को दिलासा दिलाई कि कुछ नहीं होगा. थाने ले जाकर छोड़ देंगे. फिर थाने पहुंचकर फिर से बहुत घबराहट होने लगी. मेरी रूह तक जैसे कांप रही थी. मैंने जैसे ही कहा कि मैंने कुछ नहीं किया, किसी ने एक जोरदार तमाचा मेरे मुंह पर जड़ दिया. ये मेरे डर की पराकाष्ठा थी. इससे पहले घर में कोई क्रिमिनल रिकॉर्ड नहीं था. मैं एक ऐसा लड़का था जिसने कभी न थाना देखा था न जेल. उधर, घर परिवार रिश्तेदार सब परेशान थे.

थाने में ऐसे बीती पहली रात
थाने में किस तरह पहली रात बीती, बयां करने को शब्द नहीं है. सबको लग रहा था कि शायद दूसरी पार्टी मान जाए, समझौता हो जाए. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और तीसरे दिन चालान के बाद मुझे जेल भेज दिया गया. अक्टूबर की वो तारीख भी याद है जिस दिन मुझे जेल भेजा गया. यह शाम पांच छह बजे का वक्त था. मन में यह था कि जल्दी ही जमानत हो जाएगी छूट जाएंगे. जेल के गेट पर लाइन लगाकर खड़ा हो गया. वहां सबसे पहले सारे कपड़े उतारकर तलाशी हुई फिर मेडिकल चेकअप हुआ. मुझे एक थाली-कंबल मिला. अब कुछ भी महसूस नहीं कर पा रहा था. रात के करीब दस बज चुके थे. मुझे उसी थाली में दाल रोटी सब्जी दी गई. दिनभर की थकान के बाद बहुत तेज भूख लगी थी. जेल की उस थाली में खाना देखकर घर याद आ रहा था. कैसे हम भाई बहन मां बाप सब साथ खाते थे. चारों तरफ ऊंची-ऊंची दीवारें और वो कैद सोचकर फिर से दिल जोर से धड़कने लगा. करीब एक बीघे में बने इस बैरक में 200 से 250 कैदी थे. उनमें से कुछ बात करना चाह रहे थे, लेकिन मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था. बस, यही लग रहा था कि मेरे साथ यह क्या हो गया. यही सोचते सोचते नींद आ गई.

तारीख पर तारीख…
फिर अगली सुबह हुई तो सब गिनती के लिए दौड़े, वहीं नाश्ता मिलना था. मैं भी उनके पीछे पीछे चल पड़ा. किसी ने मुझे बताया कि अखबारों में मेरे खिलाफ कई खबरें छपी हैं. हेडलाइन सुनकर और डर गया. अब तो लग रहा था कि कहीं मुझे फांसी न हो जाए. खैर घरवाले मिलने आए, जमानत की उम्मीद बंधाई. लेकिन, मेरी जमानत नहीं हो पाई. अब एक एक दिन जमानत की उम्मीद में कटने लगा. केस की सुनवाई शुरू हुई तो मुझे सेशन कोर्ट से 10 साल के कारावास की सजा दी गई. घरवाले जमानत के लिए हाईकोर्ट तक गए लेकिन कहीं से मुझे जमानत नहीं मिल सकी. फिर भी यह उम्मीद थी कि शायद आज नहीं तो कल जमानत मिल जाएगी.
हाईकोर्ट में अर्जी लगाई गई. तो साल 2012 में हाईकोर्ट से भी जमानत कैंसिल हो गई. उसके बाद तारीख पर तारीख पड़ती रहीं, वहां भी सजा को बरकरार रखा गया. लेकिन जेल में रहते हुए मैंने महसूस किया कि वहां रहने वालों को हर वक्त बाहर जाने की एक आस रहती है. वहां रहते वो आस कभी टूटती ही नहीं.

ऐसा था जेल का रूटीन
मेरी जिंदगी एक रूटीन में चलने लगी. सुबह छह बजे बैरक खुलना, जोड़े से गिनती होना. हम सर्किल कार्यालय जाते थे, वहीं नाश्ता मिलता था, कभी किसी दिन दलिया, किसी दिन बंडे (खाने की चीज), किसी दिन चने. गिनती होती जाती थी, साथ साथ नाश्ता मिलता जाता था. नाश्ता लेकर फिर बैरक में आते थे. नहा धोकर नाश्ता करते थे. इसके बाद दोपहर 12 बजे रोटी परेड होती थी जिसमें हमें खाना मिलता था. लंच के बाद फिर गिनती होती थी और बैरक बंद हो जाता था. फिर बैरक चार बजे खुलता था और पांच बजे फिर रोटी परेड की लाइन में लगते थे और फिर बैरक बंद हो जाता था.
बैरक का शोरगुल, पंखों की आवाज, एलईडी टीवी की आवाजें. आप सोच नहीं सकते कि गर्मी में एक हॉल में 200 बंदे हों तो कैसी घुटन होती है.
पर सजा तो सजा है
मुझे पता था कि यह जो मेरे साथ हो रहा है, यह सजा है. मुझे पता भी नहीं चला था कि बाहर निकलने के इंतजार में मेरे एग्जाम कब निकल गए. पढ़ाई छूट चुकी थी. ये रूटीन जीते जीते चार साल हो गए. अब साल 2013 आ गया. समझ लीजिए कि चार साल लग गए थे ये समझने में कि अब कुछ करना होगा. ऐसा कब तक चलेगा. पहले यही लगता था कि अब छूट जाएंगे, तब छूट जाएंगे. इस तारीख में नहीं तो दूसरी में छूट जाएंगे. लेकिन इस साल मैंने जेल अधीक्षक की सलाह पर 12वीं का फॉर्म भरा. अब मेरी पढ़ाई शुरू हुई तो एक सुकून सा आने लगा.
यहां मुझे जेल की लाइब्रेरी में पढ़ने की सुविधा मिलती थी. ड्यूटी निरीक्षक से साइन कराओ, पर्ची बनाओ और लाइब्रेरी जाकर पढ़ लो. बाकी बैरक में पढ़ लो. वहां हमारे एक टीचर थे जो पढ़ाने आते थे. उनसे मेरे जैसे और बच्चे भी पढ़ते थे.

जब जेल बना एग्जाम सेंटर
खैर, एग्जाम का वक्त आया. जेल में ही एग्जाम सेंटर बना दिया गया था. पढ़ाई के दौरान बने साथी और मैं एग्जाम देने गए. लौटकर आओ तो साथ रहने वाले पूछते कि पेपर कैसा हुआ. यह सुकूनदायक लग रहा था. वैसे भी कहीं एक जगह रहो तो मन लग ही जाता है. लेकिन, यहीं से आपकी सोच भी बनती है. मैं वहां हर तरीके के आदमी के साथ उठता बैठता था लेकिन मेरा दिमाग कभी जुर्म की दुनिया में जाने की तरफ नहीं गया. ऐसा माना जाता है कि जो जेल जाते हैं वहां अपराधियों की संगत में आकर उन्हें जुर्म का रास्ता लुभाने लगता है. कई लोग गैंगस्टर तक बन जाते हैं. लेकिन मैंने पढ़ाई का रास्ता चुना. गैंगस्टर नहीं, इंजीनियर बना.
अच्छे नंबर आए तो सबने मनाई खुशी
अब एग्जाम देकर रिजल्ट का वक्त आया. मैं फर्स्ट डिविजन 84 प्रतिशत से ज्यादा नंबरों से पास हुआ था. इतने सारे लोग खुश थे, माहौल बहुत अच्छा हो गया. मेरे सहपाठी भी बहुत अच्छे नंबरों से पास हुए थे. हम 8 से 10 बच्चे थे, सबसे अच्छे नंबर पाने वालों में मैं तीसरे नंबर पर था. मेरे 500 में से 423 नंबर आए थे. उसके बाद तो बस चल पड़ी. पढ़ाई का जज्बा जाग चुका था. मुझे यूपी सरकार की तरफ से लैपटॉप दिया गया. अब 12वीं के बाद IGNOU से बीकॉम का फॉर्म भर दिया. इग्नू से ही सर्टिाफिकेट इन इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी का कोर्स किया. इसमें मेरे 67पर्सेंट नंबर आए. फिर सर्टिटफिकेट इन ह्यूमन राइट्स कोर्स किया. इसके अलावा कंप्यूटर कोर्स भी किया. वहां जो जो कराते थे मैं सब करता रहता था.

एक हाथ में हथकड़ी, दूसरे में पेन
इसी बीच घर से हफ्ते में दो बार मिलाई करने मम्मी पापा भाई बहन सब आते थे. मैंने उन्हें बताया कि मैं इंजीनियर बनने की तैयारी कर रहा हूं. इस बीच बीटेक के लिए दो बार एंट्रेंस एग्जाम देने गया. उस टाइम UPSEE (उत्तर प्रदेश स्टेट एंट्रेंस एग्जाम) का एग्जाम होता था. लेकिन निकल नहीं पाया. मुझे एग्जाम दिलाने पुलिस लेकर गई थी, मेरे एक हाथ में हथकड़ी लगी हुई थी, और मैं एग्जाम लिख रहा था. एग्जाम सेंटर पर सब मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे मैं कोई आतंकवादी या गैंगस्टर हूं. यह सब बातें मेरे दिमाग को बहुत प्रेशर दे रही थीं. शायद यही वजह थी कि एग्जाम नहीं निकला.
कैद के बाद आजादी
जेल से ही मेरी बीकॉम की पढ़ाई चलती रही और साल 2018 में मेरी रिहाई का वक्त आ गया. वो वक्त जिसका मैं ख्वाब देख रहा था. मैं कई हफ्तों पहले से यह सोचकर सो नहीं पा रहा था कि बाहर जाकर कैसा लगेगा. वो आजादी, अपना घर, मां के हाथ का खाना, अपना बिस्तर सब मुझे याद आ रहा था. जेल के अधिकारी मेरे व्यवहार को बहुत सराहते थे. अब वो दिन आया जब मुझे कैद से आजादी मिल चुकी थी.
परिवार वालों के साथ मैं अपने घर पहुंचा. मुझे देखने पूरा गांव इकट्ठा हो गया था. मेला सा जुड़ गया था. किसी ने कुछ नहीं कहा. खुद को अंदर से अजीब सा लग रहा था. घर पहुंचा तो इतने सालों में जैसे घर में मेरा वजूद ही मिट गया था. घर की दीवारों के रंग अलग थे. मेरे साथ खेलने वाले मेरे भाइयों की शादी हो चुकी थी. घर में भाभियां थीं. बहन अब बड़ी हो चुकी थी और मां बाप के चेहरे मुरझा से गए थे. मेरे घर में कहीं न मेरे कपड़े थे, न मेरा कमरा, न मेरे बिस्तर, न मेरी पहचान से जुड़ी ज्यादा चीजें.

इंजीनियरिंग कॉलेज में मिला दाखिला
इस नए माहौल में ढलने में पांच से छह महीने लग गए. ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी दूसरे के घर आ गया हूं. मैंने यह भी महसूस किया कि पहले स्नेह करने वाले बहुत सारे लोग नजर बचाकर निकल रहे थे. कुछ जो बहुत अच्छे दोस्त थे कभी, अब उनसे बात करने में भी संकोच लगता था. अब वो कनेक्शन फील नहीं हो रहा था. मैंने ये सब भूलकर अब यूपीएसईई का एग्जाम दिया तो इस बार मुझे 13 हजार के करीब रैंक मिली. इससे मुझे नोएडा का एक अच्छा इंजीनियरिंग कॉलेज मिल गया.
कॉलेज में मैंने किसी को अपना अतीत नहीं बताया. अगर बता देता तो फिर लोग दूसरे का दोष ज्यादा देखते हैं. मैंने कैंपस से शांत ढंग से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की. लास्ट सेमेस्टर पास करने से पहले ही कैंपस से एक नामी कंपनी में मेरा प्लेसमेंट हो गया. साल 2022 में मैंने कंपनी ज्वॉइन कर ली. यहां ट्रेनिंग के दौरान मुझे 25 हजार रुपये मासिक मिलते हैं. यहां भी किसी को मैंने अपना पास्ट नहीं बताया. डर रहता है कि कहीं मेरा अतीत जानकर मुझे बिना समझे ही नौकरी से न निकाल दें. कैसे, किन हालात में मैंने अपना यह सपना पूरा किया है, ये सिर्फ मैं जानता हूं.
एक बार भी पैरोल पर बाहर नहीं आया
अपनी दस साल की कैद में मैं कभी बाहर नहीं आ पाया. भाई की शादी में भी नहीं. यहां अपीलेंट को पैरोल दी जाती है. लेकिन एक बार पैरोल हुई थी तो उसमें मेरा नाम नहीं लिखा था. जब तक करेक्शन होता पैरोल का टाइम निकल गया. मुझे बाहर की दुनिया सिर्फ अदालत जाते वक्त दिखती थी. यहां भी लोग कैदी की तरह देखते थे. यह देखकर बहुत बुरा लगता था.

शादी करूंगा तो अतीत बताकर…
मुझे वैसे अपना अतीत किसी को बताने में दिक्कत नहीं है. लेकिन मुझे यह पहचान छिपानी पड़ती है. अब अगर मैं शादी करूंगा तो यह सब बताकर ही करूंगा. मैं कुछ भी छुपा नहीं सकता. जिसने मुझपर केस किया, मैंने सजा काटी, मैंने उसे दिल से माफ कर दिया. अब मेरा मन एकदम बदल गया है. मैं नफरत भी नहीं करता और कोई भावना भी नहीं है. मेरा उसके प्रति कोई गुस्सा नहीं है. जो हो गया उसे भूल गया.
गांव वाले करते हैं सराहना
इतनी लंबी सजा मिलने पर लोग टूट जाते हैं, लेकिन मैंने खुद को संभाला. अब गांव में लोग मुझे सराहते हैं, कहते हैं कि देखो लड़का जेल में रहकर आया फिर भी अपने पैरों पर खड़ा हुआ. मैं जेल में भी जेलर के साथ ऑफिस में काम करने लगा था. वहां मुझे रजिस्टर में पेशी चढ़ाना, तलाशी रजिस्टर मेन्टेन करना जैसे काम करने होते थे. इसके मुझे रोज के 25 रुपये मिलते थे. हम चेक बनवा लेते थे. कई बार मैंने चेक बनवाए. जेल से दूसरे कैदी जो दोस्त बने थे, वो भी बाहर आकर बात करते हैं और कई कैदी मुझसे सीखते हैं. मुझे अच्छा लगता है कि जेल में मुझे अच्छे उदाहरण के तौर पर बताया जाता है.
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Illustration by Vani Gupta