प्रकाश मनु जन्मदिन विशेषः उपन्यास अंश यह जो दिल्ली है – Prakash Manu Birth Day Special Book excerpts of Novel Yeh Jo Dilli Hai


वरिष्ठ साहित्यकार प्रकाश मनु ने आज जीवन के तिहत्तर वर्ष पूरे कर चौहत्तरवें वर्ष में प्रवेश किया है. अब से ठीक तीस बरस पहले सन् 1993 में उनका उपन्यास ‘यह जो दिल्ली है’ प्रकाशित हुआ था. तब से अब तक यह उपन्यास बराबर चर्चा में रहा है. दिल्ली जैसे महानगर में पत्रकारिता करने आये युवा सत्यकाम के सपनों और संघर्षों की यह कथा कैसे उसके प्यार और भविष्य के साथ ही मनुष्यता के मौलिक प्रश्नों से जुड़ जाती है, यही इस कृति की जीवंतता का मूल है. पिछले दिनों जोधपुर विश्वविद्यालय में इस पर शोध भी हुआ. मनु के जन्मदिन पर पढ़िए इसी उपन्यास ‘यह जो दिल्ली है’ का अंशः
‘दिल्ली में जो एक और दिल्ली है!’
अगले दिन पैर दफ्तर जाने के बजाय इंडिया गेट पहुंचे तो (आप आसानी से कल्पना कर सकते हैं…कि कैसे) पहले तो पैर हैरान हुए…और फिर आंखें.
बहुत दिनों तक एक ही घेरे में घूमते रहो तो शायद ऐसा होता है कि उस घेरे से निकलना ही एक थ्रिल…! सत्यकाम वहीं कुछ देर घूमता, टहलता रहा.
उसे सचमुच अच्छा-अच्छा, खुला-खुला लग रहा था. थोड़ी देर में कावेरी आती दिखाई दी- पीली साड़ी में सहज, सरल कावेरी. पहले कब देखा था कावेरी को साड़ी में? सत्यकाम एक छोटी-सी पहेली में कैद! फिर एक दूसरी पहेली, साड़ी पहनते ही यह क्या हो जाता है कि…!
फिर एक तीसरा विचार-सरलता की अपनी ही सुंदरता है जो शीतल करती है, शांत करती है. वो पंत ने क्या कहा है कि ‘बालिका मेरी मनोरम मित्र थी…!’
कावेरी को देखा तो एक हल्का-सा प्रकंप सत्यकाम के चेहरे पर नजर आया. जैसे कृतज्ञता भरा अभिवाद- मौन!
कावेरी खिलखिला दी.
यों ही, बस यों ही- या ऐसा कुछ देख लिया था उसने?
सत्यकाम को अपनी हल्की-सी झेंप पर झेंप आ रही थी. सोच रहा था- कावेरी का व्यवहार ज्यादा खुला है- स्वस्थ!
दोनों बहुत देर तक इंडिया गेट के लॉनों में घूमते-टहलते रहे-निरुद्देश्य. टुकड़े-टुकड़े बातचीत-कभी अर्थपूर्ण, कभी बेमतलब. घर की, दफ्तर की, अतीत की, देश की, समाज की…और न देखे भविष्य की बातें. न जाने क्या-क्या याद आता रहा. क्या-क्या शब्दों में उतरता रहा. उनका उत्साह छलका पड़ रहा था.
सत्यकाम को न जाने क्यों पीली साड़ी वाली कावेरी में उसका फूलों, तितलियों और वसंत की तरह उड़ता मन- और कहिए कि मन के भीतर का एक और मन नजर आ रहा था.
उसे लगा, कावेरी को जैसे आप छूकर भी छू नहीं सकते. वह देह और स्पर्शों के भी पार है- कहीं और, कहीं और…! और वह उसे छू लेना चाहता था- एक चुनौती. कहां से आती है इतनी स्निग्धता, सरलता…सरलता भरा प्यार. कावेरी में क्या है ऐसा जो कि… सिर्फ कावेरी में है! या कि उसे लगता ही है?
घूमते-घूमते वे चिड़ियाघर आ गए. दूर से बोर्ड देखा और कावेरी का कावेरीपन शुरू…! यहां कावेरी के लिए बहुत-कुछ था जो उसे बच्चों की तरह ललकने को छोड़ देता. और कावेरी को खुश देखकर-या कहिए कावेरी को देख-देखकर सत्यकाम खुश हो रहा था.
“वो देखो…वो…!” घूमते-घूमते कावेरी ने इशारा किया. और सत्यकाम अवाक्. चकित.
कुछ दूर नर और मादा जेबरा का जोड़ा था. दोनों के जिस्म पर इतनी खूबसूरत काली-काली धारियां कि जैसे अभी-अभी किसी चित्रकार ने ब्रश से टच करके छोड़ा हो कोई चित्र… फाइनल टच! और चित्र से निकलकर बाहर आ खड़े हुए हों दोनों. एक-दूसरे को इतने स्नेह से आंकते हुए-इतना खूबसूरत, मौन प्यार कि…सत्यकाम ने खुद को चित्रलिखित-सा पाया.
और मुड़कर जब कावेरी की ओर देखा तो उसकी आंखों में शरारत थी.
फिर एक और अजूबा. एक पिंजरे में हरी आंखों वाला काला चीता था. इतने गुस्से में टहल रहा था वह- और आग की लपटों की तरह जलती आंखें बता रही थीं उसकी कि जैसे कह रहा हो ‘मुझे एक क्षण के लिए खोल दो, सिर्फ एक क्षण के लिए- और मनुष्य के पुत्तर मैं तुम्हें बताता हूं कि…कि स्साले…हेकड़ीबाज…!’
सुनो, सुनो, सुनो, जंगल की आवाज. उस जंगल की, जिसे आदमी ने रौंदा, काटा, बर्बाद किया, पर फिर भी उसकी आदिम आवाज कभी उठती है तो…? सत्यकाम के भीतर किसी ने कहा है.
कुछ आगे बंदर थे-उछलते-कूदते. उनमें से एक उतरा डाल से. पत्ते की प्याली बनाकर नहर से पानी पीने लगा.
“वो देखो, कावेरी…!”
“क्या? सचमुच…”
लंगूर किस्म-किस्म के थे-सबके चेहरे ऐसे कि अभी होली खेलकर आए हों. मादा लंगूर बड़ी ही सॉफ्टनेस- बड़ी ही अव्याख्येय सॉफ्टनेस से अपनी संतान को चिपकाए. माँ है आखिर- माँ, माँ होती है…!
सबसे खूबसूरत थे लंबी पूंछ वाले रंगीन तोते. इतने रंग, इतने रंग तोतो में-लाल, नीले, पीले, बैंगनी…कि सत्यकाम को ताज्जुब हुआ, कहीं कुछ मन के रंग भी तो इनमें नहीं मिल गए!
कुछ तोते तो बिल्कुल जादूगर जैसे, सिर पर रंगीन टोपियां. आवाजें भी अजीब टड़ाप-टड़ाप-टड़ाप…! सत्यकाम ने नकल की तो तोते को तो मजा आ गया-बोल बेटा, बोल…और बोल…! हारना सत्यकाम को पड़ा.
यों ही कुछ गुनगुना-सी दिया, “आहा, आहा…तोते भी क्या ऐसे होते?”
और कावेरी की शिशु चंचलता ताली पीट-पीटकर हंसने लगी, “ये हो तुम सत्यकाम…ये…! असली सत्यकाम यहां है- भारी लबादे वाला नहीं…वह तो, वह तो…”
“उसका विलोम है- यही न!…आषाढ़ का एक दिन वाला विलोम.”
“एक्जेक्टली!…एंड आई हेट दैट फैलो ट्रेवलर!!” कावेरी ने बिंदास ढंग से कहा तो सत्यकाम की हंसी छूट गई.
घूमते हुए वे वहां आए, जहां मोर थे- बड़े-बड़े पिंजरों में.
सत्यकाम और कावेरी एक मोर के पिंजरे के आगे खड़े थे. उसके खूबसूरत पंखों की ओर प्रशंसात्मक निगाहों से ताकते….और कौन कह सकता है कि मोर प्रशंसात्मक निगाहों को पहचानना नहीं जानते. कावेरी बड़ी-बड़ी चंचल निगाहों से देखे जा रही थी. करीब-करीब घूरने की हद तक.
“क्यों-क्या कभी देखे नहीं मोर?”
कावेरी ने मगन मन सिर हिलाया.
अचानक क्या हुआ कि ऐसी आवाज जैसे बादल घुमड़ते हैं…और लो, मोर के सारे पंख खुल चुके थे- और वह नए ही रूप में था.
देखते ही देखते थर-थर-थर नाच उठा मोर.
थर-थर-थर आसपास का सारा परिवेश. थरथराती हवा…अजीब लय…! कावेरी चकित, सत्यकाम भी. तो क्या मोर ने सचमुच समझ लिया था उन प्रशंसात्मक निगाहों का भाव? और दूरी प्रशंसा पाने के लोभ से नाचे जा रहा था और भी वेग से-और भी वेग…! पैरों में जैसे आंधी हो, बिजलियां हों.
क्या अद्भुत नाच था. कावेरी तालियां बजा उठी, “वाह!”
उसने पहली बार देखा था नाचता मोर.
सत्यकाम ने एक दफा ट्रेन की खिड़की पर बैठे हुए नाचता हुआ मोर देखा था, दूर खेतों में, लेकिन…
नाचते मोर के बाद जो घटित हुआ, वह उसने भी नहीं देखा था.
यानी…? कुछ-कुछ नीलापन लिए उस हरियाले मोर का नाच देखकर जब तालियां पीट रही थी कावेरी तो दूसरे पिंजरे में खड़ा सफेद मोर भला कब तक ताकता रहता? और फिर जैसे कोई जादू-सा हुआ!
फिर वैसे ही बादलों के घुमड़ने की तरह पंखों का खुलना. वैसे ही आंधी का चलना, पैरों में बँधी बिजलियां!
और थर-थर-थर…थरथराती हुई लय!
और देखते ही देखते सफेद मोर भी नाचते-नाचते उसी लय, उसी गति में आ गया. थर-थर धरती, थर-थर आकाश, थर-थर हवा…!
दोनों मोरों का एक साथ नाच…जैसे नाच प्रतियोगिता में शामिल हों दोनों. कावेरी अवाक्. अवाक् सत्यकाम.
वाह-वाह, भई वाह…!
तालियां!…सबकी इकट्ठी तालियां!!
कोई सुख का क्षण कभी-कभी इतना बड़ा हो जाता है कि दुख, पीड़ा…विष-सब-कुछ उसके भीतर ही भीतर घुलने लगता है.
मोरों के नाच का यह आवेश कहीं सत्यकाम के भीतर भी दाखिल हुआ था-अपनी ही तरह से.
कावेरी और वह.
वह और कावेरी.
मोरों ने नाच-नाचकर उन्हें मिला दिया.
मोरों के साथ नाच रहे थे दोनों के मन-और दोनों ने एक साथ जाना कि मन का नाचना भी मोरों के नाचने की तरह ही होता होगा.
वहां से कुछ दूर आगे एकांत आया-हरी झाड़ियों के झुरमुट का हरा एकांत, तो सत्यकाम ने कावेरी का हाथ पकड़ा और अपने होंठों से लगा लिया. कावेरी की मुसकराती हुई आंखें उसकी आंखों से मिलीं और…जल्दी ही दोनों ने खुद को संभाल लिया.
*
फिर मॉडर्न आर्ट गैलरी देखने का प्रस्ताव कावेरी का. सत्यकाम पहले कई दफा देख चुका था आर्ट गैलरी को, पर कावेरी के साथ तो पहली बार ही देखेगा न! और कावेरी की उपस्थिति चीजों के कोण और कभी-कभी तो सारा परिदृश्य बदल दे, तो भी कोई ताज्जुब की बात नहीं. सत्यकाम इतना समझ गया था.
अब वे चिड़ियाघर से पैदल आर्ट गैलरी की ओर बढ़ रहे थे, भुट्टे खाते हुए. बतियाते हुए. और सत्यकाम को लग रहा था, दिल्ली तो उसने आज देखी है-पहली बार ठसाठस भीड़ और अपमान से भरी हुई डी.टी.सी. बसों से कितनी अलग थी यह दिल्ली. कितनी मोहक. और कावेरी अब कावेरी नहीं, हवा थी….पहाड़ी हवा!…पहाड़ी झरनों को छूकर आई खिलंदड़ी हवा!!
सत्यकाम को खींचे लिए जा रही थी हवा. बोलती हुई हवा…मुसकराती हुई हवा. गीत गुनगुनाती-थरथराती हुई हवा…!
और वहां भी उसकी कमेंट्री चालू हो गई.
अपना घर-बचपन उसे याद आ रहा था. वह घर, वह बचपन जिसी सहजता को-सहज क्षणों को उसने व्यावसायिकता की आंधी में धीरे-धीरे चौपट होते देखा. जैसे आंधी में छप्पर का एक-एक सिरा कमजोर होता है. एक-एक बाँस, थूनी…और फिर एक दिन…धडड़ड़ड़ड़ धड़ाम!!
सिर्फ माँ थी जो उसे समझती थी. माँ जो अशक्त थी…ठीक से चल-फिर भी नहीं सकती थी. जीवित होते हुए भी लाचार. फिर भी कितना भरा-भरा ममत्व…और लाचार थी नहीं, लाचार बना दिया गया था. एक कहानी जिसे कहते हुए सत्यकाम के होंठ हमेशा जलने लगते हैं. और उसे अधबीच छोड़, अपनी अंगार बनी आंखों पर पानी डालना पड़ता है….फिर एक दिन माँ चली गई और…
तब से घर से कटता जा रहा है, बल्कि कट गया है वह.
अब घर स्मृतियों में उसका पीछा करता है- और नींद में, अवचेतन-हर जगह… घर का अहसास झुरझुरी-सी पैदा करता है. यह ऐसे ही है जैसे किसी सप्राण चीज का देखते ही देखते निर्जीव हो जाना या कि अस्तित्वहीन.
नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट!…अरे, हम तो आ गए-इतनी जल्दी!
चलो, पहले बाहर लॉन में-धूप में प्रतीक्षारत मूर्तियों से मुलाकात कर ली जाए! सचमुच बीहड़ भावों, अनुभवों, आकृतियों का संसार.
मॉडर्न आर्ट गैलरी के बाहर की शिल्प कलाकृतियों के पास से होते हुए वे भीतर आए.
रंग और रेखाओं की एक लंबी यात्रा- राजा रवि वर्मा, रवींद्रनाथ ठाकुर, नंदलाल बसु, अवनींद्रनाथ ठाकुर, रामकिंकर, अमृता शेरगिल से लेकर हुसैन, गणेश पाइन और जी.आर. संतोष तक.
रंगों की दुनिया आज सत्यकाम को ज्यादा करीब और ज्यादा अपनी-अपनी-सी लगी क्योंकि कावेरी उसके करीब थी.
चित्रकला के मामले में कावेरी की तकनीकी जानकारी चाहे ज्यादा न हो, पर एक बुद्धिमान-और उससे भी अधिक भावप्रवण दर्शक वह थी और चीजों की तह तक जा सकती थी. बड़ी गहराई से समझती थी वह चित्रों की एक-एक भंगिमा, रंगों के शेड्स को, मूड्स को…और मजे की बात यह कि जो कुछ देखती, उसे आज के संदर्भ में व्याख्यायित भी कर लेती. और वे चित्र देखते ही देखते जीवित हो उठते. वे आकार जो एक लम्हा पहले फ्रेम में बंद थे, अचानक सीमाएँ तोड़कर बाहर आने लगते.
जीवित लोगों, जीवित अहसासों की एक नदी बहती रही उन दोनों के बीच.
रवींद्रनाथ टैगोर के रेखाचित्र, नंदलाल बसु की कला, यामिनी राय के कला-प्रयोगों में नई शक्ल पहनकर उतरी लोक-कला, अवनींद्रनाथ ठाकुर की कला सादगी. इस सबसे अलग दूसरे छोर पर चल रही रवि वर्मा की कला की मांसल खूबसूरती. और इधर कला में अमूर्तन, विरूपीकरण और फैंटेसी की एक से एक चकित करती अभिव्यक्तियां. अटपटेपन के अपने अर्थ और विसंगतियां.
बार-बार नियमों को तोड़कर स्वच्छंदता की ओर जाती कला और स्वच्छंदता से फिर शास्त्रीय रागों की तरह गहराती एक से एक विलक्षण अभिव्यक्तियां. एक से एक गहरे अर्थ.
इन सबके बीच सौंदर्य का एक नया ही अर्थ, नई ही आभा प्रकाशित हो रही थी, क्योंकि आज कावेरी साथ थी.
क्योंकि आज कावेरी साथ थी इसीलिए क्या राजा रवि वर्मा की हाथ में फल लिए और की चित्रकृति देखकर उसे बहुत जोर की हंसी आई? हंसी कावेरी भी, फिर मुश्किल से खुद पर काबू पाकर बोली, “सुंदरता, सिर्फ शरीर की सुंदरता! बुद्धिमता की सुंदरता आंक सके, राजा रवि वर्मा में वह कला मुझे नजर नहीं आती. देखते नहीं हो, उसकी आंखें में कैसी ठुल्लमठुल्ल मूर्खता भरी हुई है…!” और फिर हंसी का दौर-दौरा.
कुछ सहज हुई तो बोली, “आज के सारे प्रयोगों और अमृता शेरगिल की दो बहनों में से एक को चुनना हो तो मैं दो बहनों को चुनूंगी. सारे प्रयोगों को मुंह चिढ़ाती हुई ये बहनें आज भी अपनी शक्ति का अहसास कराती हैं.”
वहां से निकले तो सामने प्रगति मैदान जाती हुई बस खड़ी थी.
सत्यकाम को जाने क्या सूझा. कावेरी की बांह खींचता हुआ-सा बोला, “चलो कावेरी, वहां से लौटने के लिए अपनी-अपनी बसें ले लेंगे.”
प्रगति मैदान में बस से उतरे तो बारिश की हल्की-सी झड़ी उन्हें भिगो गई. दिन भर की तेज उमस वाली गरमी के बाद जरा-सा बारिश में भीगना बुरा नहीं था. भूख लग आई और कावेरी के लंचबॉक्स में दो पराँठे पड़े थे. उन्होंने लॉन में बैठकर मिर्ची के अचार के साथ पराँठे खाए, कॉफी पी. और एक-दूसरे के पास होने को फील किया.
कॉफी की थोड़ी गरमाहट मिली, तो सत्यकाम को सुकून का अहसास हुआ. भीतर बैठे ‘दार्शनिक’ ने जोर मारा. धीरे-धीरे एक-एक शब्द पर जोर देता हुआ बोला, “आज का खुला-खुलापन कितना अच्छा लग रहा है कावेरी!…आज समझ में आया कि दिल्ली जैसे भीड़भाड़ वाले शहर में एक प्रगति मैदान का होना कितना जरूरी है!”
कावेरी की हंसी छूट गई- बहुत जोरों से. हंसती रही…हंसती रही वह…यह कावेरी आज इतना क्यों हंस रही है? नहीं, हंसती तो पहले भी थी, पर आज इसका हंसना कुछ अलग नहीं लग रहा-क्यों?
“मैंने शायद ज्यादा ही बेवकूफी की बात कह दी?” सत्यकाम झेंपा.
नहीं-झेंपने का नाटक किया उसने. वह थोड़ा-बहुत नाटककार भी हो सकता है- आज कावेरी के साथ बातें करते हुए महसूस किया उसने.
“कौन-सी बात? तुम तो सुबह से कुछ न कुछ कहे ही जा रहे हो!”
“तो…?”
“हो सकता है, तुम्हारी बात पर हंसी न आई हो.”
“तो…?”
“देखो उधर…!” कावेरी ने उंगली उठा दी सत्यकाम की ओर- और उसे इधर-उधर देखता पाकर कहा, “अरे नहीं बुद्धू. देखो जरा अपनी छाती की तरफ…क्या मॉडर्न आर्ट है, एब्स्ट्रैक्ट…फैंटेस्टिक!.”
सत्यकाम ने देखा तो झेंप गया. बुरी तरह. इस बार सचमुच झेंपा था- झेंपने का नाटक नहीं.
उसकी छाती के बाल उसके सफेद कुरते पर सचमुच आधुनिक चित्रकला का नमूना पेश कर रहे थे.
“मैं दरअसल…वो…बनियान नहीं पहनता…!” सत्यकाम ऐसे कह रहा था जैसे कोई चोरी करते रंगे हाथों पकड़ा जाए.
“तो मैं कब शिकायत कर रही हूं…? तुम ऐसे भी ठीक-ठाक लग रहे हो, बल्कि कहीं अच्छे.” कहकर कावेरी फिर हंसी-ठठाकर.
वह भी.
और भीतर-बाहर की सभी दूरियां जैसे सिमट आई हों.
कुछ देर बाद हंसी थमी, तो सत्यकाम ने गंभीर मुद्रा पहनते हुए कहा, “भई कावेरी, तुम्हारा चित्रकार हमेशा सक्रिय रहता है.”
“और तुम्हारा कवि. जोड़ी कोई बुरी नहीं…और इसके लिए चाहो तो धन्यवाद दो राजधानी प्रेस को.”
कहकर कावेरी की आंखें हंस पड़ीं-बड़ी ही स्पष्ट, बेझिझक हंसी.
***
# संपर्कः प्रकाश मनु, 545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008, मो. 09810602327, ईमेल- prakashmanu333@gmail.com

 

Leave a Comment